ग़ज़ल
बरसो तक जो खास रहा वो हो जाता है आम कभी चेहरा भूल गए हम उसका या भूले हैं नाम कभी बू-ए-मय को तरस रहे हैं हम जैसे रिंदे भी अब वरना बज़्म जमा करती थी हाथों में थे जाम कभी हमने ये नुक़सान उठाया घर में छोटा होने पर अपने हिस्से में ना आया कोई ज़रूरी काम कभी रिहा नहीं हो पाओगे तुम उम्र बीत जाने पर भी एक बार सर पे आ जाए उल्फत का इल्ज़ाम कभी क़ासिद को लौटा देते हैं बिना जवाब दिए अब तो वरना रोज़ लिखा करते थे इश्क़ का वो पैग़ाम कभी - हिमांशु शर्मा